रवींद्रनाथ टैगोर की अद्भुत बाल कविता राजा का महल

 

आलेख: डॉ. प्रकाश मनु 

 

इन दिनों रवींद्रनाथ टैगोर की बच्चों के लिए लिखी गई बहुत सी कविताएँ एक साथ पढ़ने का सुयोग मिला। इनमें से जिन कविताओं ने सबसे अधिक मन को खींचा, उनमें टैगोर की कविता राजा का महल भी है। इसमें बच्चे के खेल और कौतुक की दुनिया है, उसका रहस्यों से भरा जिज्ञासा-संसार है और आनद का एक ऐसा भाव है, जिसे बच्चा सिर्फ मां से ही बाँट पाता है।
इस कविता को आप भी पढ़ें, क्योंकि इसे पढ़ने का मुझे लगता है, अपना सुख है। बच्चे ही नहीं, शायद बड़े भी इसका आनंद ले सकते हैं, क्योंकि इस कविता को पढ़ना अपने बचपन को फिर से जी लेने के मानिंद है। कविता में तीन पद हैं और तीनों में ही सुनहले तारों से बुनी बच्र्चे की रहस्य और कौतुक भरी दुनिया। तो अब कविता पढ़िए–

नहीं किसी को पता कहाँ मेरे राजा का राजमहल।
अगर जानते लोग, महल यह टिक पाता क्या एक पल।
इसकी दीवारें सोने की, छत सोने की धात की,
पैड़ी-पैड़ी सुंदर सीढ़ी उजले हाथी दाँत की।
इसके सतमहले कोठे पर सूयोरानी का घरबार,
सात-सात राजाओं का धन, जिनका रतन जड़ा गलहार।
महल कहाँ मेरे राजा का, तू सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।

सात समंदर पार वहाँ पर राजकुमारी सो रही,
इसका पता सिवा मेरे पा सकता कोई भी नहीं।
उसके हाथों में कँगने हैं, कानों में कनफूल,
लटें पलंग से लटकी लोटें, लिपट रही है धूल।
सोनछड़ी छूते ही उसकी निंदिया होगी छू-मंतर,
और हँसी से रतन झरेंगे झर-झर, झर-झर धरती पर,
राजकुमारी कहाँ सो रही, तू सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।

बेर नहाने की होने पर तुम सब जातीं घाट पर,
तब मैं चुपके-चुपके जाता हूँ उसी छत के ऊपर।
जिस कोने में छाँह पहुँचती, दीवारों को पार कर,
बैठा करता वहीं मगन-मन जी भर पाँव पसार कर।
संग सिर्फ मिन्नी बिल्ला होता है छत की छाँव में,
पता उसे भी है नाऊ-भैया रहता किस गाँव में।
नाऊ-टोला कहाँ, बताऊँ–तो सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।

इस कविता का बहुत सुंदर प्रवाहयुक्त अनुवाद किया है युगजीत नवलपुरी ने। युगजीत नवलपुरी के कई सुदर अनुवाद याद आ रहे हैं। पर यह सोचकर मुझ बड़ा दुख और ग्लानि हो रही है कि मैं इस विलक्षण अनुवादक के बारे में कितना कम जानता हूँ।
अगर मित्र इस बारे में कुछ बताएँ, तो अच्छा लगेगा।

 

(www.prakashmanu-varta.com से साभार)

Posted on जून 6, 2011, in Uncategorized and tagged , , , . Bookmark the permalink. 3 टिप्पणियां .

  1. इंटरनेट पर बाल साहित्य का परचम लहरा रहा है , यह बहुत ही सुख और गौरव की बात है , बधाई हो बड़े भाई

    बाल साहित्य यहाँ भी

  2. रवीन्द्र ठाकुर की कविता पढ़कर बड़ा आनंद आया इसके अलावा पता लगा की उन दिनों बालकविता का क्या स्वरूप था

  3. महत्वपूर्ण ब्लॉग। हिन्दीतर बालसाहित्य पर बात किए बिना हम हिन्दी बालसाहित्य की न तो गौरवमयी परम्परा से दूसरों को परिचित करा सकते हैं और न ही आज की हालत में इसकी दयनीय स्थिति का आकलन कर सकते हैं। आप को, प्रकाश मनु जी को और पूरी टीम को इस सत्कार्य के लिए साधुवाद।

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